Sunday, August 30, 2009
बजट का आम लोगों पर प्रभाव
केंद्रीय बजट में ग्रामीण-शहरी जीवन के बीच के अंतर पर बहुत ध्यान दिया गया है। शहरी भारत को बजट में कुछ राहत मिलने की उम्मीद थी, लेकिन उसे निराशा हाथ लगी। बजट के तुरंत बाद शेयर बाजार की भारी गिरावट की वजह 6.8 फीसदी से अधिक राजकोषीय घाटे का अनुमान रही, विनिवेश से संबंधित रोडमैप का अभाव या एफडीआई से संबंधित आगामी सुधार की अनुपस्थिति रही। इस गिरावट को आप ग्रामीण इलाके पर भारी खर्च किए जाने की योजना से उपजी निराशा भी कह सकते हैं। शायद ग्रामीण भारत पर केंद्रित इस बजट में शहरी भारत के लिए उचित पैकेज की व्यवस्था नहीं की गई थी।सरकार ने दरअसल खरीद की क्षमता की समानता यानी परचेजिंग पावर पैरिटी (पीपीपी) के आधार पर यूनीक सेलिंग प्रोपोजिशन (यूएसपी) की समानता की कोशिश की है जिससे फायदा अंतत: शहरी भारत को ही होगा। ग्रामीण पीपीपी दरअसल शहरी पीपीपी का एंकर है और वास्तव में यह समग्र पीपीपी का प्रतिनिधित्व करती है। पीपीपी दरअसल उत्पादों एवं सेवाओं के एक बास्केट की कीमत पर अंतरराष्टï्रीय स्तर पर क्षमता का मापक है। भारत जीडीपी के मामले में दुनिया में 12वें स्थान पर है, लेकिन अगर पीपीपी का जीडीपी में योगदान के हिसाब से बात करें तो हम दुनिया में चौथे नंबर पर हैं। अमेरिका, चीन और जापान के बाद इस मामले में भारत का ही स्थान है। अगर एक तिमाही में हमारे पीपीपी में उछाल दर्ज किया जाए तो हम जापान से आगे निकल सकते हैं।मसला सिर्फ यही नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सरकार पीपीपी को लागत कम रखते हुए बढ़ाना चाहती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए गहरी प्रतिबद्धता के बिना इसे पूरा किया जाना संभव नहीं है। यूपीए सरकार की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धताओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि इन अवसरों को भुनाने के लिए ग्रामीण पीपीपी बेहतरीन माध्यम है और सरकार इसके लिए पर्याप्त कोशिश कर रही है। शहरी इलाकों की तुलना में गांवों में रहने का खर्च करीब एक तिहाई है। अगर इस हिसाब से बात करें तो ग्रामीण पीपीपी शहरी भारत की तुलना में काफी अधिक है। इसके अलावा ग्रामीण अर्थव्यवस्था शहरों को खाद्यान्न एवं श्रम समेत कई चीजों की आपूर्ति करती है। इस हिसाब से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की लागत में वृद्धि शहरी अर्थव्यवस्था की तुलना में बहुत धीमी है। ग्रामीण लागत कम होने के बावजूद इसकी स्वीकार्यता काफी अधिक है। वास्तव में घटते पीपीपी के साथ शहरी अर्थव्यवस्था का ग्रामीण लागत पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, क्योंकि इसमें अधिक ग्रामीण संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है। स्पष्टï है कि ग्रामीण कारोबार कीमत के मामले में हमारी प्रतियोगिता को बढ़ाता है।इकनॉमिस्ट द्वारा मैकडोनाल्ड्स के बिग मैक बर्गर पर एक अध्ययन से हम पीपीपी को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। यह बर्गर दरअसल पीपीपी को बेहतर तरीके से समझा सकता है क्योंकि इसमें खाद्यान्न, श्रम एवं अन्य तरह की लागत शामिल हैं। अमेरिका में इसकी कीमत करीब 173 रुपए है, जबकि भारत में यह 57 रुपए में उपलब्ध है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि दोनों के पीपीपी में 3.04 गुना का अंतर है। अगर इस बर्गर को ग्रामीण भारत में तैयार किया जाता तो ग्रामीण पीपीपी मल्टीपल के हिसाब से इसकी लागत एक तिहाई कम हो जाती। तर्क के लिहाज से कहा जा सकता है कि मैकडोनाल्ड्स को अपने सभी बिग मैक बर्गर की आपूर्ति भारत से, खासकर ग्रामीण भारत से करनी चाहिए।इस उदाहरण से साफ है कि राष्टï्रीय पीपीपी का बढऩा पूरी तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था इसे संभाल सकती है या कहें कि और कम कर सकती है। ग्रामीण जीवन स्तर को कम खर्च पर बढ़ाने के अपने प्रयासों से हम इसमें सुधार दर्ज कर सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ताजा बजट में इस कोण का ख्याल बखूबी रखा गया है। सरकार को सबसे पहले ग्रामीण, कस्बाई एवं शहरी पीपीपी को मापने के लिए मशीनरी तैयार करनी चाहिए। इस इंडेक्स में एक बैरोमीटर लगाकर यह पता करने की कोशिश की जानी चाहिए कि किस तरह ग्रामीण एवं शहरी इलाकों के लिए चलाई जाने वाली आधिकारिक योजनाएं (भारत निर्माण, नरेगा आदि) पीपीपी मल्टीपल पर असर डालती हैं। इसकी गहन आवश्यकता है और यह सरकार के लिए संचार के एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस इंडेक्स की मदद से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कम लागत वाला बनाए रखने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे। भारत वित्त मंत्रालय से इस आशय की मांग कर सकता है। इस आवंटन के बाद भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी के हिसाब से उसका हिस्सा तुलनात्मक रूप से कम ही रहेगा। लचर शासन इस हालत को बदतर बना सकता है।राजकोषीय घाटे के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। 6.8 फीसदी घाटा खतरे का संकेत है। बजट में जहां इसे चार फीसदी तक लाने की बात की गई है, वहीं हम इस मामले में अंतरराष्टï्रीय स्थितियों को भूल गए हैं। अमेरिकी घाटा 13.2 फीसदी पर पहुंच गया है। इसके अलावा अमीर देश 2014 तक अपने कर्ज के स्तर को अपने जीडीपी के बराबर लाने की कवायद कर रहे हैं।लेखक एसएएंडजेवी, एमजीआरएम टेक इंक, यूएसए के चेयरमैन हैं
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