Saturday, May 23, 2009
ये है दिल्ली मेरी जान
जब मशहूर फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यïूगो ने कहा था कि सेना के दखल से संबंधित मामले को रोका या टाला जा सकता है, लेकिन किसी विचार को लागू करने के समय को नहीं, तब उनके दिमाग में जो अंतिम चीज रही होगी वह भारत की विज्ञापन राजधानी दिल्ली होगी। जो लोग देश की राजधानी से परिचित हैं उन्हें भी यह अपनी बाबूगिरी, उद्योग जगत की लॉबीइंग, गणतंत्र दिवस पर निकलने वाली परेड की वजह से याद होगी, न कि विज्ञापन की दुनिया में इसके जलवे की वजह से।अब आपको सच्चाई से रूबरू कराते हैं। भारत के विज्ञापन जगत में मुंबई को भले ही मक्का का दर्जा हासिल हो, लेकिन उससे यह ताज छिन जाने के प्रबल आसार नजर आ रहे हैं। भारत में काम कर रही बड़ी विज्ञापन एजेंसियां अब उत्तरी इलाके से अच्छा खासा मुनाफा कमा रही हैं। जेडब्ल्यूटी का दिल्ली ऑफिस पूरी दुनिया में चौथा सबसे बड़ा केंद्र है। यह साल में कम से कम 400 फिल्में बना रहा है। पेप्सिको और नोकिया जैसे क्लाइंट के साथ काम कर रही जेडब्ल्यूटी ने अगर अपने दिल्ली दफ्तर को भारत का मुख्य केंद्र बनाया है तो यह तय है कि दिल्ली विज्ञापन के मामले में मुंबई से आगे निकल रही है। जेडब्ल्यूटी इंडिया के चेयरमैन कोल्विन हैरीज कहते हैं, 'दिल्ली में ईसीडी के पांच केंद्र हैं, जबकि मुंबई में सिर्फ एक। सिर्फ इस उदाहरण से आप दिल्ली के विज्ञापन बाजार का आकार समझ सकते हैं।Óमैक्केन एरिक्सन के हिसाब से अधिकतर ग्राहक और अवार्ड विजेता अब दिल्ली में दफ्तर स्थापित करने पर जोर दे रहे हैं। कोका कोला और कन्फेक् शनरी की मशहूर ब्रांड परफेट्टïी का मुख्यालय दिल्ली में ही स्थित है। विज्ञापन पर बेहिसाब खर्च करने वाली अन्य प्रमुख कंपनियों में भारती एयरटेल, मारुति सुजुकी, हीरो होंडा, सैमसंग,एलजी और डाबर जैसी कंपनियां प्रमुख हैं। पिछले पंद्रह सालों में सेवा क्षेत्र, कंज्यमर ड्यूरेबल, अेलीकॉम और ऑटोमोबाइल से जुड़ी प्रमुख कंपनियों ने अपना दफ्तर देश की राजनीतिक राजधानी में स्थापित किया है। इसके अलावा मजेदार तथ्य यह भी है कि भारत में नए लॉन्च होने वाले उत्पाद के लिए भी दिल्ली को मुख्य केंद्र बनाया जा रहा है। उद्योग जगत के अनुमान के अनुसार अगर कोई कंपनी विज्ञापन पर 20,000 करोड़ रुपए खर्च करती है तो उसका एक तिहाई दिल्ली से खर्च होता है। इस हिसाब से मुंबई का हिस्सा सिर्फ 8,000 करोड़ रुपए आता है, जबकि दिल्ली का 7,000-7,500 करोड़ रुपए। जेडब्ल्यूटी जैसी कंपनियों के पास जहां पहले से ही दिल्ली में स्थापित दफ्तर है, वहीं पिछले कुछ सालों में प्रमुख कंपनियां उभरते बाजारों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए दिल्ली का रुख करने लगी हैं। विज्ञापन एजेंसियों और कंपनियों की पहली पसंद मुंबई पर दिल्ली को तरजीह दिए जाने की एक वजह यहां ग्राहक-एजेंसी के बीच के संबंध हैं। विज्ञापन जगत के पुराने दिग्गज निखिल नेहरू, जेडब्ल्यूटी के पूर्व ईवीपी नॉर्थ और मुद्रा के ईवीपी संदीप विज का मानना है कि अब स्थितियां बदल गई हैं। पहले विज्ञापन जगत में पेशेवर कॉरपोरेट जगत से अपने संबंधों की वजह से नियुक्त किए जाते थे, लेकिन 90 के दशक के बाद जब नए ब्रांड उभरने शुरू हुए तो इस ट्रेंड में काफी बदलाव दर्ज किया गया। हैरीज कहते हैं, 'दिल्ली दरअसल पिछले पंद्रह सालों में स्थापित ब्रांड की सफलता की गाथा है। आज अगर कोई बहुराष्टï्रीय कंपनी भारत आती है तो उसे कामकाज के लिए मुंबई पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है।Óघरेलू उद्यमों का नेशनल ब्रांड और देसी पेशेवरों का विज्ञापन व्यक्तित्व (ऐड मैन) बनना भी दो वजह से संभव हो पाया है। एक तो बहुराष्टï्रीय कंपनियों के भारत में प्रवेश और दूसरा घरेलू उद्यमों का उभरना। ड्राफ्टएफसीबी के सीईओ अरविंद वाबले कहते हैं कि दिल्ली में ग्राहक-एजेंसी के संबंध मुंबई की तुलना में नए हैं। वह कहते हैं, 'अब संबंधों के विकसित होने में प्रदर्शन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है, सिर्फ संबंधों के बूते कोई बहुत दिनों तक कारोबार नहीं कर सकता।Ó ड्राफ्टएफसीबी उल्का दिल्ली के सीओओ संजीव भार्गव कहते हैं कि दिल्ली में पहले से मार्केटिंग की कोई भूमिका नहीं रही है। वह कहते हैं, 'हमने खुद नियम बनाए और उन्हें सफलता के मुकाम पर पहुंचाया, पहले से इस बाजार में कुछ भी नहीं था।Óदिल्ली को उस तरह की कोई मदद भी नहीं मिली जो मुंबई के पास पहले से उपलब्ध थी। जेडब्ल्यूटी दिल्ली के मैनेजिंग पार्टनर रोहित ओहरी कहते हैं कि इस पेशे में स्पीड और आक्रामकता दो महत्वपूर्ण हथियार हैं। वह कहते हैं, 'हम मुंबई की तुलना में ग्राहकों के लिए अधिक तेज और आक्रामक रणनीति अख्तियार करते हैं।Ó जेडब्ल्यूटी दिल्ली की सीनियर वीपी अतिका मलिक कहती हैं, 'मुंबई का कामकाजी मॉडल अधिक व्यक्तिवादी है, जबकि एजेंसी बिजनेस टीमवर्क से चलता है। यहां जब ग्राहक हमें बिक्री के आंकड़े बताते हैं तो क्रिएटिव लोगों को अधिक महत्व देना पड़ता है।Óदिल्ली के एक क्रिएटिव हेड बताते हैं कि डाबर के दिल्ली ऑफिस में एक मशहूर एजेंसी के प्रमुख आए। वह कॉरिडोर में घूम रहे थे और सिगरेट फूंकते जा रहे थे। इसकी वजह यह थी कि कंपनी के अधिकारी ने उनसे उसी समय स्क्रिप्ट लिखने को कह दिया। विज्ञापन एजेंसी में काम करने के समय की कोई प्रतिबद्धता नहीं होती क्योंकि रचनात्मकता को समय के दायरे में नहीं बांधा जा सकता।
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