Sunday, May 17, 2009

चुनाव का असर शेयर बाज़ार पर भी

भारत में राजनीति और इक्विटी बाजारों के बीच हमेशा से एक कमजोर धागे से बंधा नाता रहा है। इसमें कोई खास मजबूती कभी नहीं दिखी। इतिहास भी इसका गवाह है। नई दिल्ली में सरकार का रुझान क्या होगा, इससे कहीं ज्यादा अहम यह है कि दलाल स्ट्रीट में विदेशी पूंजी प्रवाह की दिशा और मजबूती कैसी है...
लोकसभा चुनावों के नतीजे को लेकर दलाल स्ट्रीट की हवा में कयास तैर रहे थे और साथ ही शेयर बाजार पर उसके असर को लेकर आशंकाएं-अंदाजे लगाए जा रहे थे। बीते कुछ सप्ताह के दौरान बाजार की चाल को देखते हुए दलाल स्ट्रीट ने अगली सरकार के संभावित गठजोड़ का अनुमान लगाया। आम सहमति थी कि कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी के वर्चस्व वाली सरकार कारोबार और साथ ही साथ इक्विटी बाजारों के लिए बेहतर साबित होगी। दूसरी ओर माना जा रहा था कि कोई भी दूसरा गठबंधन कारोबारी हितों के खिलाफ होगा और इक्विटी निवेशकों के लिए बुरी खबर लेकर आएगा। सबसे खराब अंक गैर भाजपा, गैर कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन यानी तीसरे मोर्चे की सरकार की संभावना को दिए जा रहे थे।

तो अब अनुभव आधारित सबूत क्या सुझाते हैं?

पहली नजर में, सबूत दलाल स्ट्रीट के नजरिए से मेल खाते हैं। हालांकि, गहराई में उतरकर की जाने वाली जांच इस निष्कर्ष को काफी हद तक जाया साबित करती है। अंतरराष्ट्रीय नकद प्रवाह की प्रकृति और वैश्विक वित्तीय तंत्र के साथ भारत की एकजुटता के चलते घरेलू बाजारों में शेयरों की कीमतें सरकार की आर्थिक नीतियों के बजाय पूंजी प्रवाह से तय होती हैं। यह बाजार की हालिया तेजी से साफ होता है जो 2008 की शुरुआत में खत्म हुई थी। इसकी शुरुआत भारतीय इक्विटी बाजार के लिए एक ही दिन की सबसे बदतर गिरावट के साथ हुई थी। 17 मई 2004 को जब यह स्पष्ट हो गया कि एनडीए को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है और कम्युनिस्ट तथा दूसरे क्षेत्रीय दलों के समर्थन के साथ कांग्रेस नीत गठबंधन अगली सरकार बनाएगा तो बाजार इंट्रा-डे 14 फीसदी लुढ़का था और दिन में दो बार कारोबार पर रोक लगानी पड़ी थी। संयोग से भारत ने अगले 40 महीने के दौरान सबसे बड़ी तेजी देखी जिसे रिकॉर्ड तोड़ विदेशी पूंजी प्रवाह से ईंधन मिला और बाजार या कारोबार के लिए ज्यादा दोस्ताना व्यवहार न रखने वाला यूपीए गठबंधन कीर्तिमान स्थापित करने वाली आर्थिक बढ़त के दौर में देश की अगुवाई करने की उपलब्धि का सेहरा बांध ले गया। हालांकि, अगर हम बीते पांच साल को नजरअंदाज करते हैं जो बाजार में तेजी के गवाह रहे तो भारत पर लंबी अवधि का सबूत क्या है? भारतीय इक्विटी बाजारों के लिए डाटा 1990 से उपलब्ध है। 1990 से डाओ जोंस इंडस्ट्रियल एवरेज की चाल की तुलना में बीएसई सेंसेक्स की मासिक (औसत) चाल के मामले देखें तो इस दौरान देश ने केंद्र की सरकार में चार अलग-अलग गठबंधन का अनुभव लिया। 1991 के मध्य से 1996 के बीच कांग्रेस नीत अल्पमत सरकार ने जिम्मा संभाला। इसके बाद दो साल के लिए युनाइटेड फ्रंट सरकार के हाथ में देश की बागडोर थी जो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का कमजोर गठबंधन था। 1998 की शुरुआत से 2004 के बीच भाजपा नीत नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) ने करीब छह साल के लिए सत्ता का सुख भोगा। और बीते पांच साल से कांग्रेस की अगुवाई वाली युनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (यूपीए) ने कुर्सी संभाली। जैसा कि चार्ट से पता चलता है, कांग्रेस और भाजपा की अगुवाई में बनने वाली सरकार इक्विटी बाजारों में तेजी के दौरान कार्यकाल में रहीं। बीते दो दशक के दौरान देखी गई सभी बड़ी तेजी या तो कांग्रेस नीत सरकार (1990-94) के दौर में आई या फिर भाजपा नीत सरकार के वक्त (1998-2000, 2003-2008)। युनाइटेड फ्रंट सरकार के भाग्य में देश के इक्विटी बाजारों के लिए सबसे बुरे वक्त भी सत्ता में होना लिखा था। 1996-98 के दौरान जब दुनिया भर के इक्विटी बाजार तेजी का मजा ले रहे थे तो भारत में मंदी का दौर जारी था। हालांकि, इस सबूत पर आंख मूंद कर विश्वास नहीं किया जा सकता। 1998 में भले केंद्र में एनडीए शासन की शुरुआत बाजार में तेजी के साथ हुई हो लेकिन 2000 की शुरुआत में डॉटकॉम का बुलबुला फूटा और बाजार तीन साल के लिए मंदी के चक्कर में फंस गया। 2003 की शुरुआत तक बेंचमार्क इंडेक्स दशक के सबसे निचले स्तर पर रहे। एनडीए शासन के अंतिम साल में जाकर इक्विटी बाजारों में कुछ जान देखने को मिली। कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के लिए भी शेयर बाजार का रिकॉर्ड विवादों से परे नहीं है। नरसिंह राव सरकार के शुरुआती दौर में देखने को मिली रैली कार्यकाल के तीन साल पूरे होते-होते दम तोड़ गई और अगले करीब एक दशक तक बाजार कारोबारी गतिविधियों से विमुख रहा। इसलिए सवाल उठा कि 1996 के मध्य में तीसरे मोर्चे की सरकार आई तो क्या यह पूर्व सरकार की विरासत थी या फिर बाजार के खराब प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार थी?चार्ट से 1990 के अंत तक भारतीय इक्विटी बाजार में विदेशी पूंजी की बढ़ती भूमिका साफ नहीं दिखती। विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) को सबसे पहले 1991 में भारतीय शेयर बाजारों में दाखिल होने की इजाजत दी गई लेकिन उन्हें अपना असर दिखाने में कुछ वक्त जरूर लगा। 1990 के अंतिम दिनों में एफआईआई भारतीय शेयर बाजार पर तरलता के सबसे बड़े स्रोत बन गए थे। हम 1998 के बाद से अब तक सेंसेक्स और डाओ जोंस के बीच करीबी ताल्लुकात देखते हैं। इससे पहले, सेंसेक्स की चाल डाओ जोंस के व्यवहार से काफी हद तक अलग हुआ करती थी। ऐसा कोई कारण नहीं दिखता जिससे यह माना जा सके कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा, भले नई दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाली सरकार की नीतियां कुछ भी क्यों न हों। हेज फंड, बड़े अंतरराष्ट्रीय बैंक, प्राइवेट इक्विटी फंड, पेंशन फंड और सॉवरेन वेल्थ फंड जैसे बड़े संस्थागत निवेशक सभी बड़े इक्विटी बाजारों में अहम किरदार रखते हैं। और अगर वे किसी एक बाजार में मुनाफा बनाते हैं तो उसे दूसरे बाजारों में शेयरों के दाम चढ़ाने में काम लेते हैं। इसी तरह अगर वे अमेरिका जैसे किसी अहम शेयर बाजार में पैसा गंवाते हैं तो दूसरे बाजारों में बिकवाली पर उतर आते हैं। उनका यही व्यवहार दुनिया भर के बाजारों को तेजी और मंदी से रूबरू कराता है। पिछले साल वैश्विक इक्विटी बाजार की मंदी और उसके बाद हुई वापसी से भी यही चलन साफ होता है। इसलिए इक्विटी में पैसा लगाने वाले निवेशकों को चुनावों के नतीजों की चिंता करने से कहीं ज्यादा ध्यान विदेशी पूंजी प्रवाह पर निगाह टिकाए रखने की सलाह दी जाती है।

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